الْحَمْدُ لِلَّهِ رَبِّ الْعَالَمِينَ (٢)
इस दूसरी आयत मे इंसान अल्लाह की शिफते रहमान और शिफते रहीम के मातेहत निज़ामे तख्लीक़ और निज़ामे रबुबियत को उसके हक़ के साथ जान लेता है तो वो इस निज़ाम की शनाक्त उसकी पहचान को अपने शऊर और समझ के साथ आलमी दशा और दिशा को अपने इस इल्मी शऊर को इस अल्फाज़े अल-हम्द में पेश करते हुए वो अल्लाह की मुक़र्रर करदा दशा और दिशा के मुताबिक होने वाली कायनाती हरकात को ही तसबीह कहते है यानी फाअले हकिकी को बयान करते हुए वो उसको मुक़द्दस यानी हर शकनात और हरकात से मुबर्रह (पाक) करता हुए गवाही देता है और उसकी आलमी रबुबियत को खिताब करता है की कायनात की हर एक शकनात और हरकात की रबुबियत (पालन और पोषण) अल्लाह के हुक्म पर मबनी है और उसमे किसी एक की भी शिरकत नहीं है वो खुद ही हर एक चीज को खल्क करता है नशोनुमा देता है और वही हर शैय का खातमा (फ़ना) भी करता है उसकी सुन्नत भी है जिसे वो दीन-ए-इस्लाम भी कहता है यही दीन अल्लाह के नजदीक हक़ है तो जो भी उसमे दाख़िल हो तो अपने अह्सासे बंदगी को इस आयत की तिलावत (पैरवी) उसके हक़ के साथ करते हुए दाख़िल हो यानी अल्हुम्दुलिल्लाह से उस रब्बुल कायनात की खिदमत में पेश करता है ख़ास बात यहाँ ये है की इस अल्फाज़ को इस्तिमाल करने का हक़ उसी को है जिसने अल्लाह के निज़ामे तख्लीक़ और निज़ामे रबुबियत को बाख़ूबी जान लिया हो इल्ला यह की वो खुद भी अपने मक़ाम और हैसियत का मुशायदा कर चुका हो जिसके सबब वो अपने इक़रारे बन्दंगी और इज़हारे बन्दंगी इस आयत के कौल और फ्येल के साथ पेश करे तमाम आलम (यूनिवर्स) की तख्लीक़ अल्लाह ने माद्दी और गैर माद्दी कुव्वतो से की है और तमाम माद्दी और गैर माद्दी चीजे दशा और दिशा के साथ वजूद रखती है इसलिए हमे इस बात को जानना बहुत ज़रूरी है ताकि हम उसकी तख्लीक़ से इस्तिफादा हासिल कर सके माद्दी चीजो को अल्लाह ने पांच तत्त्वो से बनाया जैसे मिट्टी,पानी,हवा,आग और आकाश से बनाया है और गैर माद्दी चीजो को उसने अपने हुक्म से बनाया है अपनी रूह से जो की कायनात का छठवा आयाम है इसी के लिए हम उस अल्लाह के अल्हुम्द यानी उसकी माद्दी और गैर माद्दी तखलीख की तारीफ उसकी रबुबियत ख़ास साथ सिफ़ते रहमान और सिफ़ते रहीम के करते है यह तारीफ सिर्फ उसके इस निज़ामे तख्लीक के लिए बस नहीं है बल्कि उसकी निज़ामे रबुबियत और निज़ामे माल्कियत और निज़ामे इलाहिहत के लिए भी की गयी है यह वो तारीफ है जो की सिर्फ और सिर्फ अल्लाह ही के लिए सजावार है उसके अलावा किसी के लिए नहीं है यहाँ पर अल्लाह का कमाल यह है की सिर्फ अल्लाह ही जाते अक्दस है जिसकी रबुबियत सिफ़ते रहमान और सिफ़ते रहीम के साथ है वरना ज़ाहिरी पालन पोषण तो इंसान, जानवर और चरिन्द्र परिन्द्र भी अपने बच्चो का करते है मगर यह सच नहीं है उसकी रबुबियत आयते मुह्किमात (मूल सिद्धांत) और मुताशाबिहात (भौतिक जगत) के साथ है जिसे हम रब्बुलआलमीन भी कहते है जो एक मुकम्मल निज़ाम के साथ रवां दवां है इसी का इकरार (मुह्किमात) के साथ और इज़हार (मुताशाबिहात) के साथ अपनी ज़िन्दगी के सफ़र को आगे बढ़ाना ही दरअसल उसकी बंदगी है जैसा की इब्राहीम अ.ह.स से अपने इसी इकरार और इज़हार को पेश किया
إِنِّي وَجَّهْتُ وَجْهِيَ لِلَّذِي فَطَرَ السَّمَاوَاتِ وَالأرْضَ حَنِيفًا وَمَا أَنَا مِنَ الْمُشْرِكِينَ (٧٩)
तर्जुमा : बेशक मेरी पूरी यकशूइअत के साथ मैं मुतवज्जेह हुआ लिए उसके वो जिसने फतर किया (फ़ितरत के साथ) आसमानों और ज़मीन को एक सिम्त में और मैं ऐसा नहीं की अपनी फ़ितरत से हटकर कोई और सिम्त अख्तियार करू l
पस इब्राहीम ने भी अल्लाह की तस्बीह उसकी हम्द के साथ उसकी पकीजगी (मुक़द्दस) बयान की और खुद भी अल्लाह की अता करदा फ़ितरत पर कायम हुए
आईये अब हम अल-हम्द को समझने की कोशिश करते है कुरान की रौशनी में जिसका तर्जुमा हमारे उलमाओ ने (उसकी रबुबियत के लिए) तमाम तारीफ किया है हलाकि अल्फाजों से उसकी तारीफ मुनासिब नहीं है और नहीं ही उसे तुम्हारी इस लफ्फाजी की ज़रूरत है जैसा की कुरान खुद कहता है की अगर सारे समुन्दर की श्याही बना ली जाये और सारे दरख़्त की कलम तो भी उसके कलमात ख़त्म नहीं होंगे तो फिर उसकी तारीफ कैसे इन अल्फाजो में की जा सकती है सिवाय इसके की इंसान अपने कौल और किरदार को उसकी अब्दियत में पेश करे तभी यह मुस्लिम हो सकता है l ठीक इसी तरह मलक ने भी अपनी अब्दियत को उसकी खिदमत में पेश किया है इस आयत के मुताबिक
وَنَحْنُ نُسَبِّحُ بِحَمْدِكَ وَنُقَدِّسُ لَكَ (30/2)
तर्जुमा : हम सब तसबीह करते है अल्लाह की हम्द से यानी उसकी तरफ से मुक़र्रर करदा दशा और दिशा के मुताबिक हम इस खला (अंतरिक्ष) में हरकत रवा है और अपनी शकनात और हरकात से तुझे मुक़द्दस (पाक) ठेहराते है यानी हम गवाही देते है की हमारी इस शकनात और हरकात में सिर्फ और सिर्फ हुक्मे वेह्दानियत (एक सत्ता, एक समानता, एक रूपता, एक विधि और एक विधान) का ही दखल है और इसी का ही हम तशव्वुर पेश भी पेश करते है l
जैसा की इस आयत में मलक का जिक्र किया की वो जब अपने शकनात और हरकात को पेश करते है तो इन्ही अल्फाजो में वो पेश करते है जिससे यह बात सामने आती है की शकनात और हरकात से ज़ाहिर की गई वेह्दानियत को हम्द कहा जाता है ठीक इसी तरह इंसान भी अपने रब के मुक़र्रर करदा दशा और दिशा के मुताबिक हरकत से उसकी हम्द करे यही उसके इस निज़ामे तख्लीक़ और रबुबियत का हक़ है और जो भी उसके इस कानून कवानीन से फिरता है और अपने तही कोई और रास्ता बनाने की कोशिश करता है तो यक़ीनन वो शिर्क करता है और मुशरिक कभी भी कामयाब नहीं हो सकता है क्योंकी मुशरिक ना तो दिशा ही सही होती है और ना ही दशा और उसके फैसले निज़ामे तख्लीक़ और रबुबियत के मुखालिफ होते है लिहाजा उसके लिए सही नतीजा हासिल करना मुमकिन ही नहीं बल्कि नामुमकिन होता है इसलिए हमे चाहिए की हम पूरी वेह्दानियत के साथ अपनी ज़िन्दगी में अपने तमाम मामलात में सरगर्दा रहे ताकि हम अपने मकासिद को सही तौर पर हासिल कर सके यही उसकी तसबीह और तौशी है l मुमकिन है की मेरी इस तावील से आपको अल-हम्द यक़ीनन समझ में आ गया होगा
قُلْ إِنَّ صَلاتِي وَنُسُكِي وَمَحْيَايَ وَمَمَاتِي لِلَّهِ رَبِّ الْعَالَمِينَ (6/162)
तर्जुमा : कहो की मेरी सलात (दीन) और मेरा तरीका (संस्कार) मेरी हयात और मेरी मौत लिए रब्बिल आलमीन के
सुरह: फ़ातिहा की तीसरी आयात की तावील ऊपर पहले ही पेश की जा चुकी है l