Guidance with Quranic Verses







 إِيَّاكَ نَعْبُدُ وَإِيَّاكَ نَسْتَعِينُ  (5/1)

तर्जुमा : (ऐ अल्लाह) हम सिर्फ और सिर्फ तेरी इबादत करते है (यानी हम सब सिर्फ तेरी अब्दियत में है) और सिर्फ और सिर्फ तुझसे ही हम इस्तियानत तलब करते है l

आईये पहले इस आयत में मौजूद अल्फाजो को समझने की कोशिश करते है 

 यह एक पर्सनल प्रोनाउन है إِيَّاكَ

तर्जुमा : इस सूरेह फातिहा की आयात 5/1 में सिर्फ दो ही अल्फाजो पर जोर दिया गया है एक इबादत का अल्फाज़ है और एक इस्तियानत का तो आइये इसे समझने की कोशिश करते है उस खालिके कायनात से मिलने वाले इल्म के बाद इंसान एक नतीजे पर पहुंच कर उस मालिके कायनात के जब वो सरे तस्लीम ख़म करता है तब वो अपनी हैसियत और मकाम को इन अहसासात को अल्फाजो में पेश करता है की हम सिर्फ तेरी इबादत करते है यानियो हम पर यह सच्चाई वजेह हो चुकी है की हम तेरी ही अब्दियत में है क्योंकि किसी भी शैय को किसी की अब्दियत में रहने के लिए उस शैय का उससे तख्लीकी जुडाव उसके इब्तिदाई वजूद के साथ होना ही दरअसल वजूद देने वाले और खल्क करने वाले अल्लाह की इबादत करना है जैसा की हम फितरी तौर पर उसका इल्म रखते है कोई भी चीज को बनाने वाला अपने मकसद के तौर पर ही उसे बनाता है और उस चीज का उसके बनाने वाले के असल मकसद के मुताबिक काम करना ही उसके बनाने का हक अदा करना है जिसे हम शऊरी तौर पर इबादत कहते है क्योंकि इबादत का ताल्लुक न सिर्फ वजूद और खल्क से है उसके साथ उस शैय में अक्ल और शऊर का होना भी जरूरी है जिसे हम यूँ कह सकते है उस शैय में खुदी का शऊर होना उसमे यह अहसास होता है की वो मौजूद है इस कायनात में वो एक्सिस्टेन्स रखता है जिसमे में का अहसास हो उसे ही हम कहेंगे अक्ल वाला और शऊर वाला क्योंकि अपने वजूद देने वाले को जानने के लिए खुद को जानना बहुत जरूरी हैतब हम अपने वजूद देने वाले की शनाक्त उसके वजूद देने के पीछे पोशीदा मकसद के साथ कर सकते है  खुद को इरादतन उसकी इबादत के लिए तमाम खूबियों और शलाहियतों के साथ अमादा कर सकते है इसी को मुस्लिम होना भी कहते है की हम इस सच्चाई को जान ले की हमे पैदा किया गया है नाकी हम पैदा हुए है इस शऊर के साथ खुद को सरे तस्लीम ख़म करना ही उसकी अब्दियत में इरादतन शामिल होना है जिस शैय में अक्ल और शऊर का दखल नहीं होता है वो उसकी अब्दियत में दाखिल भी नहीं हो सकता है इसलिए कुरान कहता है   

وَمَا خَلَقْتُ الْجِنَّ وَالإنْسَ إِلا لِيَعْبُدُونِ  (56/51)

तर्जुमा : नहीं मैंने खल्क किया जिन को मगर इंसी हैसियत से महज अपनी अब्दियत के लिए

यानी जिन जिसको अल्लाह ने खल्क किया और हैसियत दी इंस की इस मकसद के साथ की वो उसकी अब्दियत बजा लाए क्योंकि उसकी अब्दियत के लिए इंसानी औसाफ दरकार होता है और बगैर अक्ल और शऊर के उसकी अब्दियत में कोई भी शैय दाखिल नहीं हो सकती है वरना कोई भी शैय उसकी इबादत के लिए नामुकम्मल होगी और शिफते इंस के अलावा कोई भी शैय उसकी अब्दियत में नहीं दाखिल नहीं है अब चूँकि इंसान ने इस तख्लीकी निज़ाम का मुहाशिबा कर लिया है इसलिए उस पर उसकी अब्दियत शर्त है और इसके लिए उसे इस्तियानत चाहिए बतौर इस्तियानत के उसे वो तमाम जराए और वासईल की जरुरत भी पेश आएगी जिस जराए के लिए अल्लाह ने आयाते मुह्किमात के नतीजे मे मुताशाबिहात यानी इस कायनात को खल्क कर रखा है जिसके जरिये ये अल्लाह की रहमत बतौर नेमत के हासिल कर सकते है और वासाईल उसकी आयाते मुकिमात से हासिल कर सकते है जिसे कुरान अल्लाह का इज़्न क़रार दे रहा है जो की इस कायनात और इन्सानी मामलात के मूल सिद्धांत है जिसके मुताकीबत से वो इस कायनात को इंसान के लिए मुसख्खर करार देता है इन सिद्धांतो के बगैर इंसानी ज़िन्दगी इस ज़मीन पर आबाद नहीं हो सकती यानी इंसानी समाज के लिए विकास का कोई रास्ता ही ना होता अब चाहे वो फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथ्स की बात हो या हिदायत की बात हो ये सभी उसके मुह्किमात से ही ताल्लुक रखते है जिसके बा खूबी इस्तिमाल से इंसान इस ज़मीन पर तावील, तामीर और ताबीर जैसे कामो को अंजाम देता है बेहरहाल अब हम इस आयत के नतीजे पर पहुंचे की कोशिश करे की अल्लाह ने हमे जो अक्ल और शऊर बक्सा है उसका इस्तिमाल हम अल्लाह के अता करदा जराए (खल्क) और वासाईल (इज़्न) अपने लिए और तमाम आलमे इंसानियत के लिए बतौर कारे खैर के करे 

يَـٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوا۟ ٱسْتَعِينُوا۟ بِٱلصَّبْرِ وَٱلصَّلَوٰةِ ۚ إِنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلصَّـٰبِرِينَ (153/2)

तर्जुमा : ऐ वो लोग जो ईमान लाए इस्तियानत (जराए और वसाईल) हासिल करो सब्र (पूरे मुस्ताकिल मिज़ाज) के साथ (अल्लाह के ज़िक्र के मुताबिक) सलात से और यक़ीनन ऐसे मुस्तकिल मिज़ाज लोगो के साथ अल्लाह है              

यंहा पर अल्लाह ने अहले ईमान को सब्र और सलात से इस्तियानत हासिल करने का हुक्म दिया है क्योंकि जो बाते उपर गुजर चूँकि है इस्तियानत और इबादत के ताल्लुक से वो सारे के सारे इन्तिजमात अल्लाह ने निज़ामे सलात में ज़मा कर रखा है ताकि इंसान बा आसानी सलात से अपनी जरूरी गिज़ा (इस्तियानत) हासिल कर सके मगर इतने बड़े काम के लिए बड़ा सब्र भी दरकार है बगैर सब्र के इंसान के द्वारा किये गए काम कभी भी अपने बेहतर नतीजे तक नहीं पहुंच सकते है बल्कि वो तमाम अमल बेकार और बेबस हो जाएंगे लिहाज़ा इंसान के लिए ये कारे खैर उसकी हिदायत के बगैर मुमकिन ही नहीं है इसलिए हमे उससे हिदायत भी तलब करनी होगी तभी हम न सिर्फ इस कारे खैर को अंजाम दे सकते है बल्कि इसकी मुखालिफत से बच भी सकते है इसकी मुखालिफत से हमारे हिस्से में केवल गुमराही और गजब ही आएगा और कुछ नहीं तो आईये अब हम सूरेह फ़ातिहा की अगली आयात 6 और 7 की ओर चलते है


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